पलायन

Article | Oct 31, 2025


**शीर्षक: हम गरीब नहीं हैं, हमने अपना काम छोड़ दिया है — बिहार और यूपी के युवाओं के पलायन की असली कहानी**
*— The School of Consciousness*

भारत का एक समय ऐसा था जब हर गांव आत्मनिर्भर हुआ करता था। गांवों में न तो रोज़गार का संकट था और न ही पलायन की विवशता। हर व्यक्ति, हर परिवार, हर जाति या समुदाय का अपना एक काम, एक भूमिका थी — कोई खेती करता था, कोई दूध बेचता था, कोई बर्तन बनाता था, कोई कपड़ा बुनता था, कोई खेती के औजार बनाता था। यही भारत का **social structure** था — एक ऐसा जीवित तंत्र, जहां हर व्यक्ति अपने काम से समाज में जुड़ा हुआ था।

लेकिन धीरे-धीरे इस सामाजिक संरचना को हमने छोड़ दिया। आधुनिकता के नाम पर, विकास के नाम पर, हमने अपने स्थानीय हुनर, पारंपरिक काम और आत्मनिर्भर जीवन पद्धति को तिलांजलि दे दी। गांव के कुम्हार ने चाक चलाना छोड़ा, बढ़ई ने लकड़ी के औजार बनाना छोड़ा, बुनकर ने करघा छोड़ दिया, किसान ने अपने बीजों की जगह कंपनी के बीज खरीदने शुरू कर दिए। और यह सब हुआ बिना किसी वैकल्पिक व्यवस्था के।

**परिणाम क्या हुआ?**
जो काम पहले गांव के अंदर ही होता था, वही अब बड़ी-बड़ी कंपनियों ने अपने हाथ में ले लिया। दूध, सब्ज़ी, बर्तन, कपड़ा, दवा — सब कुछ अब बाजार और पूंजी के नियंत्रण में है। एक समय में जो व्यक्ति अपने काम का मालिक था, अब वही किसी दूसरे के अधीन मजदूर बन गया है।

बिहार और उत्तर प्रदेश के युवाओं का पलायन इसी बदलाव की सबसे बड़ी कीमत है। हर साल लाखों युवा दिल्ली, मुंबई, गुजरात, पंजाब जैसे राज्यों की ओर जाते हैं — कभी दिहाड़ी के लिए, कभी फैक्ट्री में मजदूरी के लिए, कभी किसी डिलीवरी या सुरक्षा कंपनी में काम करने के लिए। गांव खाली हो रहे हैं, खेत बंजर हो रहे हैं, और बुजुर्ग अकेले रह गए हैं।

राजनीतिक दल हर चुनाव में इस दर्द को “मुद्दा” बनाते हैं, लेकिन असली सवाल से बच जाते हैं —
👉 **हमारे गांवों की आत्मनिर्भरता क्यों टूटी?**
👉 **हमने अपने सामाजिक ढांचे को क्यों छोड़ा?**
👉 **क्यों हमारा ज्ञान, हमारा हुनर, हमारी परंपरा बाजार के हवाले हो गई?**

भारत गरीब नहीं है। भारत के पास हजारों वर्षों का अनुभव, ज्ञान और सामाजिक विज्ञान का एक जीवित ढांचा था। लेकिन हमने उसे त्याग दिया और पश्चिमी मॉडल की “नौकरी आधारित” अर्थव्यवस्था अपनाई, जहां हर कोई किसी न किसी के अधीन काम करता है।

अब स्थिति यह है कि गांव का वह व्यक्ति जो कभी दूध बेचकर आत्मनिर्भर था, आज वही दूध किसी बड़े ब्रांड के पैकेट में खरीद रहा है। जो कुम्हार कभी मिट्टी के बर्तन बनाता था, वही अब उसी मिट्टी का “डिज़ाइनर कप” बाजार से खरीद रहा है।

**समाधान क्या है?**
समाधान किसी एक योजना या सरकारी नौकरी में नहीं है। समाधान है — **अपने काम, अपनी जड़ों और अपने ज्ञान को आधुनिक युग के साथ जोड़ने में।**
अगर गांव के लोग अपने पारंपरिक काम को तकनीक, शिक्षा और सहयोग के साथ फिर से अपनाएं — जैसे कि दूध, कपड़ा, मिट्टी के सामान, जैविक खेती या स्थानीय उद्योगों को नए रूप में पुनर्जीवित करें — तो पलायन रुक सकता है।

हमारे युवाओं को अपने गांव की मिट्टी में ही सम्मानजनक काम मिल सकता है, अगर हम “नौकरी खोजने” की मानसिकता से बाहर निकलकर “काम बनाने” की मानसिकता में आएं।

भारत का असली पुनर्जागरण तभी संभव है जब हम यह समझें कि —
**हम गरीब नहीं हैं, हमने अपना काम छोड़ दिया है।**
हमारे भीतर वह चेतना अब भी है, बस उसे फिर से जगाने की जरूरत है।

Comments

Lokesh Ranjan

Bahot sahi baat kahi aapne

Nov 05, 2025 09:57